तुम्हारे साथ रहकर
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है
कि दिशाएँ पास आ गई हैं,
हर रास्ता छोटा हो गया है,
दुनिया सिमटकर
एक आँगन-सी बन गई है
जो खचाखच भरा है,
कहीं भी एकांत नहीं
न बाहर, न भीतर।
हर चीज़ का आकार घट गया है,
पेड़ इतने छोटे हो गए हैं
कि मैं उनके शीश पर हाथ रख
आशीष दे सकता हूँ,
आकाश छाती से टकराता है,
मैं जब चाहूँ बादलों में मुँह छिपा सकता हूँ।
तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे महसूस हुआ है
कि हर बात का एक मतलब होता है,
यहाँ तक कि घास के हिलने का भी,
हवा का खिड़की से आने का,
और धूप का दीवार पर
चढ़कर चले जाने का।
तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे लगा है
कि हम असमर्थताओं से नहीं
संभावनाओं से घिरे हैं,
हर दीवार में द्वार बन सकता है
और हर द्वार से पूरा का पूरा
पहाड़ गुज़र सकता है।
शक्ति अगर सीमित है
तो हर चीज़ अशक्त भी है,
भुजाएँ अगर छोटी हैं,
तो सागर भी सिमटा हुआ है,
सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है,
जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है
वह नियति की नहीं मेरी है।
प्रेमपत्र
बद्री नारायण
प्रेत आएगा
किताब से निकाल ले जाएगा प्रेमपत्र
गिद्ध उसे पहाड़ पर नोच-नोच खाएगा
चोर आएगा तो प्रेमपत्र चुराएगा
जुआरी प्रेमपत्र पर ही दाँव लगाएगा
ऋषि आएँगे तो दान में माँगेंगे प्रेमपत्र
बारिश आएगी तो
प्रेमपत्र ही गलाएगी
आग आएगी तो जलाएगी प्रेमपत्र
बंदिशें प्रेमपत्र पर ही लगाई जाएँगी
साँप आएगा तो डँसेगा प्रेमपत्र
झींगुर आएँगे तो चाटेंगे प्रेमपत्र
कीड़े प्रेमपत्र ही काटेंगे
प्रलय के दिनों में
सप्तर्षि, मछली और मनु
सब वेद बचाएँगे
कोई नहीं बचाएगा प्रेमपत्र
कोई रोम बचाएगा
कोई मदीना
कोई चाँदी बचाएगा, कोई सोना
मैं निपट अकेला
कैसे बचाऊँगा तुम्हारा प्रेमपत्र।
चोरी
गीत चतुर्वेदी
प्रेम इस तरह किया जाए
कि प्रेम शब्द का कभी ज़िक्र तक न हो
चूमा इस तरह जाए
कि होंठ हमेशा ग़फ़लत में रहें
तुमने चूमा
या मेरे ही निचले होंठ ने औचक ऊपरी को छू लिया
छुआ इस तरह जाए
कि मीलों दूर तुम्हारी त्वचा पर
हरे-हरे सपने उग आएँ
तुम्हारी देह के छज्जे के नीचे
मुँहअँधेरे जलतरंग बजाएँ
रहा इस तरह जाए
कि नींद के भीतर एक मुस्कान
तुम्हारे चेहरे पर रहे
जब तुम आँख खोलो, वह भेस बदल ले
प्रेम इस तरह किया जाए
कि दुनिया का कारोबार चलता रहे
किसी को ख़बर तक न हो कि प्रेम हो गया
ख़ुद तुम्हें भी पता न चले
किसी को सुनाना अपने प्रेम की कहानी
तो कोई यक़ीन तक न करे
बचना प्रेमकथाओं का किरदार बनने से
वरना सब तुम्हारे प्रेम पर तरस खाएँगे
कितना अच्छा होता है
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
कितना अच्छा होता है
एक-दूसरे को बिना जाने
पास-पास होना
और उस संगीत को सुनना
जो धमनियों में बजता है,
उन रंगों में नहा जाना
जो बहुत गहरे चढ़ते-उतरते हैं।
शब्दों की खोज शुरू होते ही
हम एक-दूसरे को खोने लगते हैं
और उनके पकड़ में आते ही
एक-दूसरे के हाथों से
मछली की तरह फिसल जाते हैं।
हर जानकारी में बहुत गहरे
ऊब का एक पतला धागा छिपा होता है,
कुछ भी ठीक से जान लेना
ख़ुद से दुश्मनी ठान लेना है।
कितना अच्छा होता है
एक-दूसरे के पास बैठ ख़ुद को टटोलना,
और अपने ही भीतर
दूसरे को पा लेना।
तुमसे अलग होकर
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
तुमसे अलग होकर लगता है
अचानक मेरे पंख छोटे हो गए हैं,
और मैं नीचे एक सीमाहीन सागर में
गिरता जा रहा हूँ।
अब कहीं कोई यात्रा नहीं है,
न अर्थमय, न अर्थहीन;
गिरने और उठने के बीच कोई अंतर नहीं।
तुमसे अलग होकर
हर चीज़ में कुछ खोजने का बोध
हर चीज़ में कुछ पाने की
अभिलाषा जाती रही
सारा अस्तित्व रेल की पटरी-सा बिछा है
हर क्षण धड़धड़ाता हुआ निकल जाता है।
तुमसे अलग होकर
घास की पत्तियाँ तक इतनी बड़ी लगती हैं
कि मेरा सिर उनकी जड़ों से
टकरा जाता है,
नदियाँ सूत की डोरियाँ हैं
पैर उलझ जाते हैं,
आकाश उलट गया है
चाँद-तारे नहीं दिखाई देते,
मैं धरती पर नहीं, कहीं उसके भीतर
उसका सारा बोझ सिर पर लिए रेंगता हूँ।
तुमसे अलग होकर लगता है
सिवा आकारों के कहीं कुछ नहीं है,
हर चीज़ टकराती है
और बिना चोट किए चली जाती है।
तुमसे अलग होकर लगता है
मैं इतनी तेज़ी से घूम रहा हूँ
कि हर चीज़ का आकार
और रंग खो गया है,
हर चीज़ के लिए
मैं भी अपना आकार और रंग खो चुका हूँ,
धब्बों के एक दायरे में
एक धब्बे-सा हूँ,
निरंतर हूँ
और रहूँगा
प्रतीक्षा के लिए
मृत्यु भी नहीं है।
तुम आईं
केदारनाथ सिंह
तुम आईं
जैसे छीमियों में धीरे-धीरे
आता है रस
जैसे चलते-चलते एड़ी में
काँटा जाए धँस
तुम दिखी
जैसे कोई बच्चा
सुन रहा हो कहानी
तुम हँसी
जैसे तट पर बजता हो पानी
तुम हिलीं
जैसे हिलती है पत्ती
जैसे लालटेन के शीशे में
काँपती हो बत्ती!
तुमने छुआ
जैसे धूप में धीरे-धीरे
उड़ता है भुआ
और अंत में
जैसे हवा पकाती है गेहूँ के खेतों को
तुमने मुझे पकाया
और इस तरह
जैसे दाने अलगाए जाते हैं भूसे से
तुमने मुझे ख़ुद से अलगाया।
क्योंकि तुम हो
अज्ञेय
मेघों को सहसा चिकनी अरुणाई छू जाती है
तारागण से एक शांति-सी छन-छन कर आती है
क्योंकि तुम हो।
फुटकी की लहरिल उड़ान
शाश्वत के मूक गान की स्वर लिपी-सी संझा के पट पर अँक जाती है
जुगनू की छोटी-सी द्युति में नए अर्थ की
अनपहचाने अभिप्राय की किरण चमक जाती है
क्योंकि तुम हो।
जीवन का हर कर्म समर्पण हो जाता है
आस्था का आप्लवन एक संशय के कल्मष धो जाता है
क्योंकि तुम हो।
कठिन विषमताओं के जीवन में लोकोत्तर सुख का स्पंदन मैं भरता हूँ
अनुभव की कच्ची मिट्टी को तदाकार कंचन करता हूँ
क्योंकि तुम हो।
तुम तुम हो; मैं—क्या हूँ?
ऊँची उड़ान, छोटे कृतित्व की लंबी परंपरा हूँ,
पर कवि हूँ स्रष्टा, द्रष्टा, दाता :
जो पाता हूँ अपने को भट्टी कर उसे गलाता-चमकाता हूँ
अपने को मट्टी कर उसका अंकुर पनपाता हूँ
पुष्प-सा, सलिल-सा, प्रसाद-सा, कंचन-सा, शस्य-सा, पुण्य-सा, अनिर्वच आह्लाद-सा लुटाता हूँ
क्योंकि तुम हो।
प्रेम कविता
गीत चतुर्वेदी
आत्महत्या का बेहतरीन तरीक़ा होता है
इच्छा की फ़िक्र किए बिना जीते चले जाना
पाँच हज़ार वर्ष से ज़्यादा हो चुकी है मेरी आयु
अदालत में अब तक लंबित है मेरा मुक़दमा
सुनवाई के इंतज़ार से बड़ी सज़ा और क्या
बेतहाशा दुखती है कलाई के ऊपर एक नस
हृदय में उस कृत्य के लिए क्षमा उमड़ती है
जिसे मेरे अलावा बाक़ी सबने अपराध माना
क़ानून की किताब में इस पर कोई अनुच्छेद नहीं।
गुनाह का दूसरा गीत
धर्मवीर भारती
अगर मैंने किसी के होंठ के पाटल कभी चूमे
अगर मैंने किसी के नैन के बादल कभी चूमे
महज़ इससे किसी का प्यार मुझ पर पाप कैसे हो!
महज़ इस से किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो!
तुम्हारा मन अगर सींचूँ
गुलाबी तन अगर सींचूँ
तरल मलयज झकोरों से,
तुम्हारा चित्र खींचूँ प्यास के रंगीन डोरों से,
कली-सा तन, किरन-सा मन
शिथिल सतरंगिया आँचल
उसी में खिल पड़े यदि भूल से कुछ होंठ के पाटल
किसी के होंठ पर झुक जाएँ कच्चे नैन के बादल
महज़ इससे किसी का प्यार मुझ पर पाप कैसे हो?
महज़ इससे किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो?
किसी की गोद में सिर धर
घटा घनघोर बिखरा कर
अगर विश्वास सो जाए,
धड़कते वक्ष पर मेरा अगर व्यक्तित्व खो जाए,
न हो यह वासना
तो ज़िंदगी की माप कैसे हो?
किसी के रूप का सम्मान मुझको पाप कैसे हो?
नसों का रेशमी तूफ़ान मुझको पाप कैसे हो?
अगर मैंने किसी के होंठ के पाटल कभी चूमे!
अगर मैंने किसी के नैन के बादल कभी चूमे!
किसी की साँस में चुन दें
किसी के होंठ पर बुन दें
अगर अंगूर की परतें,
प्रणय में निभ नहीं पातीं कभी इस तौर की शर्तें
यहाँ तो हर क़दम पर
स्वर्ग की पगडंडियाँ घूमीं
अगर मैंने किसी की मदभरी अँगड़ाइयाँ चूमीं
अगर मैं ने किसी की साँस की पुरवाइयाँ चूमीं
महज़ इससे किसी का प्यार मुझ पर पाप कैसे हो!
महज़ इससे किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो!
तुम्हारे पाँव मेरी गोद में
धर्मवीर भारती
ये शरद के चाँद से उजले धुले-से पाँव,
मेरी गोद में!
ये लहर पर नाचते ताज़े कमल की छाँव,
मेरी गोद में!
दो बड़े मासूम बादल, देवताओं से लगाते दाँव,
मेरी गोद में!
रसमसाती धूप का ढलता पहर,
ये हवाएँ शाम की
झुक झूम कर बिखरा गईं
रोशनी के फूल हरसिंगार से
प्यार घायल साँप-सा लेता लहर,
अर्चना की धूप-सी
तुम गोद में लहरा गईं,
ज्यों झरे केसर
तितलियों के परों की मार से,
सोन-जूही की पंखुरियों पर पले ये दो मदन के बान
मेरी गोद में!
हो गए बेहोश दो नाज़ुक मृदुल तूफ़ान
मेरी गोद में!
ज्यों प्रणय की लोरियों की बाँह में
झिलमिला कर,
औ जला कर तन, शमाएँ दो
अब शलभ की गोद में आराम से सोई हुई,
या फ़रिश्तों के परों की छाँह में
दुबकी हुई, सहमी हुई
हों पूर्णिमाएँ दो
देवता के अश्रु से धोई हुईं
चुंबनों की पाँखुरी के दो जवान गुलाब
मेरी गोद में!
सात रंगों की महावर से रचे महताब
मेरी गोद में!
ये बड़े सुकुमार,
इनसे प्यार क्या?
ये महज़ आराधना के वास्ते
जिस तरह भटकी सुबह को रास्ते
हरदम बताए शुक्र के नभ फूल ने
ये चरण मुझको न दें
अपनी दिशाएँ भूलने।
ये खँडहरों में सिसकते, स्वर्ग के दो गान
मेरी गोद में!
रश्मि-पंखों पर अभी उतरे हुए वरदान
मेरी गोद में!
तिल
पंकज चतुर्वेदी
सौंदर्य जहाँ सघन हुआ था
वहाँ तिल था
तिल को चूमना
समूचे सौंदर्य को चूमना था
सहर्ष स्वीकारा है
गजानन माधव मुक्तिबोध
ज़िंदगी में जो कुछ है, जो भी है
सहर्ष स्वीकारा है;
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
वह तुम्हें प्यारा है।
गरबीली ग़रीबी यह, ये गभीर अनुभव सब
यह विचार-वैभव सब
दृढ़ता यह, भीतर की सरिता यह अभिनव सब
मौलिक है, मौलिक है
इसलिए कि पल-पल में
जो कुछ भी जाग्रत है अपलक है—
संवेदन तुम्हारा है!!
जाने क्या रिश्ता है,
जाने क्या नाता है
जितना भी उड़ेलता हूँ,
भर-भर फिर आता है
दिल में क्या झरना है?
मीठे पानी का सोता है
भीतर वह, ऊपर तुम
मुसकाता चाँद ज्यों धरती पर रात-भर
मुझ पर त्यों तुम्हारा ही खिलता वह चेहरा है!
सचमुच मुझे दंड दो कि भूलूँ मैं भूलूँ मैं
तुम्हें भूल जाने की
दक्षिण ध्रुवी अंधकार-अमावस्या
शरीर पर, चेहरे पर, अंतर में पा लूँ मैं
झेलूँ मैं, उसी में नहा लूँ मैं
इसलिए कि तुमसे ही परिवेष्टित आच्छादित
रहने का रमणीय यह उजेला अब
सहा नहीं जाता है।
नहीं सहा जाता है।
ममता के बादल की मँडराती कोमलता—
भीतर पिराती है
कमज़ोर और अक्षम अब हो गई है आत्मा यह
छटपटाती छाती को भवितव्यता डराती है
बहलाती सहलाती आत्मीयता बरदाश्त नहीं होती है!!
सचमुच मुझे दंड दो कि हो जाऊँ
पाताली अँधेरे की गुहाओं में विवरों में
धुएँ के बादलों में
बिल्कुल मैं लापता!!
लापता कि वहाँ भी तो तुम्हारा ही सहारा है!!
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
या मेरा जो होता-सा लगता है, होता-सा संभव है
सभी वह तुम्हारे ही कारण के कार्यों का घेरा है, कार्यों का वैभव है
अब तक तो ज़िंदगी में जो कुछ था, जो कुछ है
सहर्ष स्वीकारा है
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
वह तुम्हें प्यारा है।
प्रहरान्त के आलोक से रंजित रवींद्रनाथ टैगोर
अनुवाद : रामधारी सिंह दिनकर
प्रहरान्त के आलोक से रंजित
उस दिन चैत का महीना था,
जब तुम्हारी आँखों में
मैंने अपना सर्वनाश देखा था।
इस संसार में नित्य क्रीड़ाएँ चलती हैं,
प्रतिदिन नाना प्राणियों का समागम होता है।
घाट-बाट में हज़ारों लोगों का
हास-परिहास चलता है।
उन सबके बीच तुम्हारी आँखों में
मेरा सर्वनाश चमकता है।
आम के वन में वायु का झोंका आता है,
मंजरियाँ झर पड़ती हैं।
जिसे बहुत दिनों से जानता हूँ,
वही गंध हवा में भर उठती है।
मंजरित डाल में,
मधु-मक्खियों के पंख-पंख पर
मधु ऋतु का दिवस
क्षण-क्षण निश्वास फेंकता है,
उन सबके बीच तुम्हारी आँखों में
मेरा सर्वनाश चमकता है।
प्रेम खो जाएगा
अशोक वाजपेयी
जैसे प्रार्थना के शब्दों की शुद्धता में ईश्वर
जैसे खिली धूप में पिछली बादल-घिरी शाम का अवसाद
वैसे ही अपनी चाहत से बिलमकर
प्रेम खो जाएगा
हम छीलते रहेंगे मेज़ पर चुपचाप बैठे नारंगियाँ और यादें
न सपने काफ़ी होंगे न शब्द
अंत में नहीं बचेगी कोई मांगलिकता
प्रेम खो जाएगा
आकाश को अपनी बाँहों में भरने की कोशिश रह जाएगी
रह जाएगी पृथ्वी के शस्य की तरह समृद्ध होने की इच्छा
कविता जैसा निश्छल होने का उपक्रम
गली पहले ही ख़त्म हो जाएगी
दरवाज़े बंद
धूप आने में असमर्थ
बीतने के भय के अलावा कोई नहीं होगा साथ
प्रेम खो जाएगा
जीर्णोद्धार के लिए नहीं मिलेंगे औज़ार
रफ़ू करने वाला धागा नहीं सूझेगा आँख को
दृश्यालेख से हरियाली, पक्षी
और बेंच पर हर दिन किसी देवता की तरह बैठा बूढ़ा
ओझल हो जाएँगे
प्रेम खो जाएगा...
No comments:
Post a Comment