आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक Aah Ko Chahiye Ek Umr Asar Hote Tak Mirza Ghalib Ghazal

आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक
दाम-ए-हर-मौज में है हल्क़ा-ए-सद-काम-ए-नहंग
देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होते तक
आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूँ ख़ून-ए-जिगर होते तक
ता-क़यामत शब-ए-फ़ुर्क़त में गुज़र जाएगी उम्र
सात दिन हम पे भी भारी हैं सहर होते तक
हम ने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जाएँगे हम तुम को ख़बर होते तक
परतव-ए-ख़ुर से है शबनम को फ़ना की ता’लीम
मैं भी हूँ एक इनायत की नज़र होते तक
यक नज़र बेश नहीं फ़ुर्सत-ए-हस्ती ग़ाफ़िल
गर्मी-ए-बज़्म है इक रक़्स-ए-शरर होते तक
ग़म-ए-हस्ती का ‘असद’ किस से हो जुज़ मर्ग इलाज
शम्अ हर रंग में जलती है सहर होते तक

 

 

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