दीवारों से मिल कर रोना अच्छा लगता है Deewaron Se Mil Kar Rona Achha Lagta Hai Qaiser-Ul Jafri Ghazal
दीवारों से मिल कर रोना अच्छा लगता है
हम भी पागल हो जाएँगे ऐसा लगता है
कितने दिनों के प्यासे होंगे यारो सोचो तो
शबनम का क़तरा भी जिन को दरिया लगता है
आँखों को भी ले डूबा ये दिल का पागल-पन
आते जाते जो मिलता है तुम सा लगता है
इस बस्ती में कौन हमारे आँसू पोंछेगा
जो मिलता है उस का दामन भीगा लगता है
दुनिया भर की यादें हम से मिलने आती हैं
शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है
किस को पत्थर मारूँ ‘क़ैसर’ कौन पराया है
शीश-महल में इक इक चेहरा अपना लगता है
- Ghazals of Shaad Azimabadi Ghazal शाद अज़ीमाबादी की ग़ज़लें ग़ज़ल
- Ghazals of Shahryar Ghazal शहरयार की ग़ज़लें ग़ज़ल
- Ghazals of Shakeel Badayuni Ghazal शकील बदायूनी की ग़ज़लें ग़ज़ल
- Ghazals of Waseem Barelvi Ghazal वसीम बरेलवी की ग़ज़लें ग़ज़ल
- Ghazals of Mohammad Rafi Sauda Ghazal मोहम्मद रफ़ी सौदा की ग़ज़लें ग़ज़ल
- Ghazals of Hasrat Mohani Ghazal हसरत मोहानी की ग़ज़लें ग़ज़ल
- Ghazals of Bashar Nawaz Ghazal बशर नवाज़ की ग़ज़लें ग़ज़ल
- Ghazals of Jaun Eliya Ghazal जौन एलिया की ग़ज़लें ग़ज़ल
- Nazms Of Fahmida Riaz फ़हमीदा रियाज़ की नज़्में नज़्म
- Ghazals of Fahmida Riaz Ghazal फ़हमीदा रियाज़ की ग़ज़लें ग़ज़ल
Comments
Post a Comment