देख तो दिल कि जाँ से उठता है Dekh To Dil Ki Jaan Se Uthta Hai Mir Taqi Mir Ghazal

देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआँ सा कहाँ से उठता है
गोर किस दिलजले की है ये फ़लक
शोला इक सुब्ह याँ से उठता है
ख़ाना-ए-दिल से ज़ीनहार न जा
कोई ऐसे मकाँ से उठता है
नाला सर खींचता है जब मेरा
शोर इक आसमाँ से उठता है
लड़ती है उस की चश्म-ए-शोख़ जहाँ
एक आशोब वाँ से उठता है
सुध ले घर की भी शोला-ए-आवाज़
दूद कुछ आशियाँ से उठता है
बैठने कौन दे है फिर उस को
जो तिरे आस्ताँ से उठता है
यूँ उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहाँ से उठता है
इश्क़ इक ‘मीर’ भारी पत्थर है
कब ये तुझ ना-तवाँ से उठता है

 

 

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