Monday, November 4, 2024

देशभक्ति पर हिंदी कविता Deshbhakti Kavita Hindi Poem

 

देशभक्ति की कविताओं का संग्रह 



    tiranga


    झाँसी की रानी

    सुभद्राकुमारी चौहान

    सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
    बूढ़े भारत में भी आई फिर से नई जवानी थी,
    गुमी हुई आज़ादी की क़ीमत सबने पहचानी थी,
    दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी,
    चमक उठी सन् सत्तावन में
    वह तलवार पुरानी थी।
    बुंदेले हरबोलों के मुँह
    हमने सुनी कहानी थी।
    ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो
    झाँसी वाली रानी थी॥
    कानपूर के नाना की मुँहबोली बहन 'छबीली' थी,
    लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
    नाना के संग पढ़ती थी वह, नाना के संग खेली थी,
    बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी,
    वीर शिवाजी की गाथाएँ
    उसको याद ज़बानी थीं।
    बुंदेले हरबोलों के मुँह
    हमने सुनी कहानी थी।
    ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो
    झाँसी वाली रानी थी॥
    लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
    देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
    नक़ली युद्ध, व्यूह की रचना और खेलना ख़ूब शिकार,
    सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना, ये थे उसके प्रिय खिलवार,
    महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी
    भी आराध्य भवानी थी।
    बुंदेले हरबोलों के मुँह
    हमने सुनी कहानी थी।
    ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो
    झाँसी वाली रानी थी॥
    हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
    ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
    राजमहल में बजी बधाई ख़ुशियाँ छाईं झाँसी में,
    सुभट बुंदेलों की विरुदावलि-सी वह आई झाँसी में,
    चित्रा ने अर्जुन को पाया,
    शिव से मिली भवानी थी।
    बुंदेले हरबोलों के मुँह
    हमने सुनी कहानी थी।
    ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो
    झाँसी वाली रानी थी॥
    उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजयाली छाई,
    किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
    तीर चलानेवाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाईं,
    रानी विधवा हुई हाय! विधि को भी नहीं दया आई,
    निःसंतान मरे राजाजी
    रानी शोक-समानी थी।
    बुंदेले हरबोलों के मुँह
    हमने सुनी कहानी थी।
    ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो
    झाँसी वाली रानी थी॥
    बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
    राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
    फ़ौरन फ़ौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
    लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया,
    अश्रुपूर्ण रानी ने देखा
    झाँसी हुई बिरानी थी।
    बुंदेले हरबोलों के मुँह
    हमने सुनी कहानी थी।
    ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो
    झाँसी वाली रानी थी॥
    अनुनय-विनय नहीं सुनता है, विकट फिरंगी की माया,
    व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
    डलहौज़ी ने पैर पसारे अब तो पलट गई काया,
    राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया,
    रानी दासी बनी, बनी यह
    दासी अब महरानी थी।
    बुंदेले हरबोलों के मुँह
    हमने सुनी कहानी थी।
    ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो
    झाँसी वाली रानी थी॥
    छिनी राजधानी देहली की, लिया लखनऊ बातों-बात,
    क़ैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात,
    उदैपूर, तंजोर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात,
    जबकि सिंध, पंजाब, ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात,
    बंगाले, मद्रास आदि की
    भी तो यही कहानी थी।
    बुंदेले हरबोलों के मुँह
    हमने सुनी कहानी थी।
    ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो
    झाँसी वाली रानी थी॥
    रानी रोईं रनिवासों में बेगम ग़म से थीं बेज़ार
    उनके गहने-कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
    सरे-आम नीलाम छापते थे अँग्रेज़ों के अख़बार,
    'नागपूर के जेवर ले लो' 'लखनऊ के लो नौलख हार',
    यों पर्दे की इज़्ज़त पर—
    देशी के हाथ बिकानी थी।
    बुंदेले हरबोलों के मुँह
    हमने सुनी कहानी थी।
    ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो
    झाँसी वाली रानी थी॥
    कुटियों में थी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
    वीर सैनिकों के मन में था, अपने पुरखों का अभिमान,
    नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
    बहिन छबीलीनेरण-चंडी का कर दिया प्रकट आह्वान,
    हुआ यज्ञ प्रारंभ उन्हें तो
    सोयी ज्योति जगानी थी।
    बुंदेले हरबोलों के मुँह
    हमने सुनी कहानी थी।
    ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो
    झाँसी वाली रानी थी॥
    महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
    यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
    झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थीं,
    मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,
    जबलपूर, कोल्हापुर में भी
    कुछ हलचल उकसानी थी।
    बुंदेले हरबोलों के मुँह
    हमने सुनी कहानी थी।
    ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो
    झाँसी वाली रानी थी॥
    इस स्वतंत्रता-महायज्ञ में कई वीरवर आए काम
    नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अजीमुल्ला सरनाम,
    अहमद शाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
    भारत के इतिहास-गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम,
    लेकिन आज ज़़ुर्म कहलाती
    उनकी जो क़ुर्बानी थी।
    बुंदेले हरबालों के मुँह
    हमने सुनी कहानी थी।
    ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो
    झाँसी वाली रानी थी॥
    इनकी गाथा छोड़ चलें हम झाँसी के मैदानों में,
    जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
    लेफ़्टिनेंट वॉकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में,
    रानी ने तलवार खींच ली, हुआ द्वंद्व असमानों में,
    ज़ख्मी होकर वॉकर भागा,
    उसे अजब हैरानी थी।
    बुंदेले हरबोलों के मुँह
    हमने सुनी कहानी थी।
    ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो
    झाँसी वाली रानी थी॥
    रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार
    घोड़ा थककर गिरा भूमि पर, गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
    यमुना-तट पर अँग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
    विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार,
    अँग्रेज़ों के मित्र सिंधिया
    ने छोड़ी रजधानी थी।
    बुंदेले हरबोलों के मुँह
    हमने सुनी कहानी थी।
    ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो
    झाँसी वाली रानी थी॥
    विजय मिली, पर अँँग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
    अबके जनरल स्मिथ सन्मुख था, उसने मुँह की खाई थी,
    काना और मंदरा सखियाँ रानी के सँग आई थीं,
    युद्ध क्षेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी,
    पर, पीछे ह्यूरोज़ आ गया,
    हाय! घिरी अब रानी थी।
    बुंदेले हरबोलों के मुँह
    हमने सुनी कहानी थी।
    ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो
    झाँसी वाली रानी थी॥
    तो भी रानी मार-काटकर चलती बनी सैन्य के पार,
    किंतु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
    घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गए सवार,
    रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार पर वार,
    घायल होकर गिरी सिंहनी
    उसे वीर-गति पानी थी।
    बुंदेले हरबोलों के मुँह
    हमने सुनी कहानी थी।
    ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो
    झाँसी वाली रानी थी॥
    रानी गई सिधार, चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
    मिला तेज़ से तेज़, तेज़ की वह सच्ची अधिकारी थी,
    अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
    हमको जीवित करने आई बन स्वतंत्रता नारी थी,
    दिखा गई पथ, सिखा गई
    हमको जो सीख सिखानी थी।
    बुंदेले हरबोलों के मुँह
    हमने सुनी कहानी थी।
    ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो
    झाँसी वाली रानी थी॥
    जाओ रानी याद रखेंगे हम कृतज्ञ भारतवासी,
    यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनाशी,
    होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
    हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी,
    तेरा स्मारक तू ही होगी,
    तू ख़ुद अमिट निशानी थी।
    बुंदेले हरबोलों के मुँह
    हमने सुनी कहानी थी।
    ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो
    झाँसी वाली रानी थी॥

    पथ भूल न जाना पथिक कहीं!

    शिवमंगल सिंह सुमन

    जीवन के कुसुमित उपवन में
    गुंजित मधुमय कण-कण होगा
    शैशव के कुछ सपने होंगे
    मदमाता-सा यौवन होगा
    यौवन की उच्छृंखलता में
    पथ भूल न जाना पथिक कहीं।
    पथ में काँटे तो होंगे ही
    दूर्वादल, सरिता, सर होंगे
    सुंदर गिरि, वन, वापी होंगी
    सुंदर सुंदर निर्झर होंगे
    सुंदरता की मृगतृष्णा में
    पथ भूल न जाना पथिक कहीं!
    मधुवेला की मादकता से
    कितने ही मन उन्मन होंगे
    पलकों के अंचल में लिपटे
    अलसाए से लोचन होंगे
    नयनों की सुघड़ सरलता में
    पथ भूल न जाना पथिक कहीं!
    साक़ीबाला के अधरों पर
    कितने ही मधुर अधर होंगे
    प्रत्येक हृदय के कंपन पर
    रुनझुन-रुनझुन नूपुर होंगे
    पग पायल की झनकारों में
    पथ भूल न जाना पथिक कहीं!
    यौवन के अल्हड़ वेगों में
    बनता मिटता छिन-छिन होगा
    माधुर्य्य सरसता देख-देख
    भूखा प्यासा तन-मन होगा
    क्षण भर की क्षुधा पिपासा में
    पथ भूल न जाना पथिक कहीं!
    जब विरही के आँगन में घिर
    सावन घन कड़क रहे होंगे
    जब मिलन-प्रतीक्षा में बैठे
    दृढ़ युगभुज फड़क रहे होंगे
    तब प्रथम-मिलन उत्कंठा में
    पथ भूल न जाना पथिक कहीं!
    जब मृदुल हथेली गुंफन कर
    भुज वल्लरियाँ बन जाएँगी
    जब नव-कलिका-सी
    अधर पँखुरियाँ भी संपुट कर जाएँगी
    तब मधु की मदिर सरसता में
    पथ भूल न जाना पथिक कहीं!
    जब कठिन कर्म पगडंडी पर
    राही का मन उन्मुख होगा
    जब सब सपने मिट जाएँगे
    कर्तव्य मार्ग सन्मुख होगा
    तब अपनी प्रथम विफलता में
    पथ भूल न जाना पथिक कहीं!
    अपने भी विमुख पराए बन कर
    आँखों के सन्मुख आएँगे
    पग-पग पर घोर निराशा के
    काले बादल छा जाएँगे
    तब अपने एकाकी-पन में
    पथ भूल न जाना पथिक कहीं!
    जब चिर-संचित आकांक्षाएँ
    पलभर में ही ढह जाएँगी
    जब कहने सुनने को केवल
    स्मृतियाँ बाक़ी रह जाएँगी
    विचलित हो उन आघातों में
    पथ भूल न जाना पथिक कहीं!
    हाहाकारों से आवेष्टित
    तेरा मेरा जीवन होगा
    होंगे विलीन ये मादक स्वर
    मानवता का क्रंदन होगा
    विस्मित हो उन चीत्कारों
    पथ भूल न जाना पथिक कहीं!
    रणभेरी सुन कह ‘विदा, विदा!
    जब सैनिक पुलक रहे होंगे
    हाथों में कुंकुम थाल लिए
    कुछ जलकण ढुलक रहे होंगे
    कर्तव्य प्रणय की उलझन में
    पथ भूल न जाना पथिक कहीं!
    वेदी पर बैठा महाकाल
    जब नर बलि चढ़ा रहा होगा
    बलिदानी अपने ही कर सेना
    निज मस्तक बढ़ा रहा होगा
    तब उस बलिदान प्रतिष्ठा में
    पथ भूल न जाना पथिक कहीं!
    कुछ मस्तक कम पड़ते होंगे
    जब महाकाल की माला में
    माँ माँग रही होगी आहुति
    जब स्वतंत्रता की ज्वाला में
    पलभर भी पड़ असमंजस में
    पथ भूल न जाना पथिक कहीं!

    हिमालय

    रामधारी सिंह दिनकर

    मेरे नगपति! मेरे विशाल!
    साकार, दिव्य, गौरव विराट्,
    पौरुष के पुंजीभूत ज्वाल!
    मेरी जननी के हिम-किरीट!
    मेरे भारत के दिव्य भाल!
    मेरे नगपति! मेरे विशाल!
    युग-युग अजेय, निर्बंध, मुक्त,
    युग-युग गर्वोन्नत, नित महान्,
    निस्सीम व्योम में तान रहा
    युग से किस महिमा का वितान?
    कैसी अखंड यह चिर-समाधि?
    यतिवर! कैसा यह अमर ध्यान?
    तू महाशून्य में खोज रहा
    किस जटिल समस्या का निदान?
    उलझन का कैसा विषम जाल?
    मेरे नगपति! मेरे विशाल!
    ओ, मौन, तपस्या-लीन यती!
    पल भर को तो कर दृगुन्मेष!
    रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल
    है तड़प रहा पद पर स्वदेश।
    सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र,
    गंगा, यमुना की अमिय-धार
    जिस पुण्यभूमि की ओर बही
    तेरी विगलित करुणा उदार,
    जिसके द्वारों पर खड़ा क्रांत
    सीमापति! तूने की पुकार,
    'पद-दलित इसे करना पीछे
    पहले ले मेरा सिर उतार।'
    उस पुण्य भूमि पर आज तपी!
    रे, आन पड़ा संकट कराल,
    व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे
    डँस रहे चतुर्दिक विविध व्याल।
    मेरे नगपति! मेरे विशाल!
    कितनी मणियाँ लुट गयीं? मिटा
    कितना मेरा वैभव अशेष!
    तू ध्यान-मग्न ही रहा; इधर
    वीरान हुआ प्यारा स्वदेश।
    किन द्रौपदियों के बाल खुले?
    किन-किन कलियों का अंत हुआ?
    कह हृदय खोल चित्तौर! यहाँ
    कितने दिन ज्वाल-वसंत हुआ?
    पूछे सिकता-कण से हिमपति!
    तेरा वह राजस्थान कहाँ?
    वन-वन स्वतंत्रता-दीप लिये
    फिरनेवाला बलवान कहाँ?
    तू पूछ, अवध से, राम कहाँ?
    वृंदा! बोलो, घनश्याम कहाँ?
    ओ मगध! कहाँ मेरे अशोक?
    वह चंद्रगुप्त बलधाम कहाँ ?
    पैरों पर ही है पड़ी हुई
    मिथिला भिखारिणी सुकुमारी,
    तू पूछ, कहाँ इसने खोयीं
    अपनी अनंत निधियाँ सारी?
    री कपिलवस्तु! कह, बुद्धदेव
    के वे मंगल-उपदेश कहाँ?
    तिब्बत, इरान, जापान, चीन
    तक गये हुए संदेश कहाँ?
    वैशाली के भग्नावशेष से
    पूछ लिच्छवी-शान कहाँ?
    ओ री उदास गंडकी! बता
    विद्यापति कवि के गान कहाँ?
    तू तरुण देश से पूछ अरे,
    गूँजा कैसा यह ध्वंस-राग?
    अंबुधि-अंतस्तल-बीच छिपी
    यह सुलग रही है कौन आग?
    प्राची के प्रांगण-बीच देख,
    जल रहा स्वर्ण-युग-अग्निज्वाल,
    तू सिंहनाद कर जाग तपी!
    मेरे नगपति! मेरे विशाल!
    रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ,
    जाने दे उनको स्वर्ग धीर,
    पर, फिरा हमें गांडीव-गदा,
    लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।
    कह दे शंकर से, आज करें
    वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार।
    सारे भारत में गूँज उठे,
    'हर-हर-बम' का फिर महोच्चार।
    ले अँगड़ाई, उठ, हिले धरा,
    कर निज विराट् स्वर में निनाद,
    तू शैलराट! हुंकार भरे,
    फट जाय कुहा, भागे प्रमाद।
    तू मौन त्याग, कर सिंहनाद,
    रे तपी! आज तप का न काल।
    नव-युग-शंखध्वनि जगा रही,
    तू जाग, जाग, मेरे विशाल!

    देश-प्रेम : मेरे लिए

    धूमिल

    एक बीमार आदमी का वक्तव्य
    दिन भर के बाद
    भोजन कर लेने पर
    देश-प्रेम से मस्त एक गीत
    गुनगुनाता हूँ
    जिसे अमीर ख़ुसरो ने लिखा है :
    अन्य लोगों की तरह
    मैं इतना कृतघ्न नहीं कि उस ज़मीन को धिक्कार दूँ
    जिस पर मेरा जन्म खड़ा है
    मेरे लिए मेरा देश—
    जितना बड़ा है : उतना बड़ा है।
    वह दिन बीत गया
    जब किसी ने रिपब्लिक की जिल्द पर
    सुकरात की अत्यंत कामातुर तस्वीर चिपका दी
    और मैं दुखी हो गया।
    वह दिन भी बीत गया—
    जब ज़मीन पर देशों की सीमाएँ खिंचते ही
    मेरे मुख पर झुर्रियाँ बढ़ जाती थीं।
    किंतु जो कभी नहीं किया—
    वही मैंने कब सीखा
    रोना—और भूख के लिए
    निरा पागलपन है
    देश-प्रेम मेरे लिए—
    अपनी सुरक्षा का
    सर्वोत्तम साधन है।
    सच्चाई अब मुझसे इतनी क़रीब है
    कि रोशनी का होना भी
    मेरे लिए केवल तहज़ीब है।
    (हर चीज़ साफ़ है—
    अपने हैं आप तो
    सौ ख़ून माफ़ है।)
    नेकर के नीचे का सारा नंगापन
    कॉलर के ऊपर उग आया है :
    चेहरे बड़े घिनौने लगते,
    पर इससे क्या फ़र्क़ पड़ गया
    अगर बड़ी छायाओं वाले बौने लगते
    और अंत में—
    सबकी सुनकर सब कुछ गुनकर
    मैंने भी नक़्शे के ऊपर
    लाल क़लम से जगह घेर दी
    और उसी सीमा के भीतर
    अपने घायल कबूतरों को
    फिर से उड़ना सिखा रहा हूँ।

    पुष्प की अभिलाषा

    माखनलाल चतुर्वेदी

    एक बीमार आदमी का वक्तव्य
    दिन भर के बाद
    भोजन कर लेने पर
    देश-प्रेम से मस्त एक गीत
    गुनगुनाता हूँ
    जिसे अमीर ख़ुसरो ने लिखा है :
    अन्य लोगों की तरह
    मैं इतना कृतघ्न नहीं कि उस ज़मीन को धिक्कार दूँ
    जिस पर मेरा जन्म खड़ा है
    मेरे लिए मेरा देश—
    जितना बड़ा है : उतना बड़ा है।
    वह दिन बीत गया
    जब किसी ने रिपब्लिक की जिल्द पर
    सुकरात की अत्यंत कामातुर तस्वीर चिपका दी
    और मैं दुखी हो गया।
    वह दिन भी बीत गया—
    जब ज़मीन पर देशों की सीमाएँ खिंचते ही
    मेरे मुख पर झुर्रियाँ बढ़ जाती थीं।
    किंतु जो कभी नहीं किया—
    वही मैंने कब सीखा
    रोना—और भूख के लिए
    निरा पागलपन है
    देश-प्रेम मेरे लिए—
    अपनी सुरक्षा का
    सर्वोत्तम साधन है।
    सच्चाई अब मुझसे इतनी क़रीब है
    कि रोशनी का होना भी
    मेरे लिए केवल तहज़ीब है।
    (हर चीज़ साफ़ है—
    अपने हैं आप तो
    सौ ख़ून माफ़ है।)
    नेकर के नीचे का सारा नंगापन
    कॉलर के ऊपर उग आया है :
    चेहरे बड़े घिनौने लगते,
    पर इससे क्या फ़र्क़ पड़ गया
    अगर बड़ी छायाओं वाले बौने लगते
    और अंत में—
    सबकी सुनकर सब कुछ गुनकर
    मैंने भी नक़्शे के ऊपर
    लाल क़लम से जगह घेर दी
    और उसी सीमा के भीतर
    अपने घायल कबूतरों को
    फिर से उड़ना सिखा रहा हूँ।

    वीरों का कैसा हो वसंत?

    सुभद्राकुमारी चौहान

    (केवल पढ़ने का लिए)
    चाह नहीं, मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ।
    चाह नहीं, प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ॥
    चाह नहीं, सम्राटों के शव पर, हे हरि, डाला जाऊँ।
    चाह नहीं, देवों के सिर पर चढूँ, भाग्य पर इठलाऊँ॥
    मुझे तोड़ लेना वनमाली!
    उस पथ में देना तुम फेंक॥
    मातृ-भूमि पर शीश चढ़ाने।
    जिस पथ जावें वीर अनेक॥

    उठ जाग मुसाफ़िर

    वंशीधर शुक्ल

    वीरों का कैसा हो वसंत?
    आ रही हिमाचल से पुकार,
    है उदधि गरजता बार-बार,
    प्राची, पश्चिम, भू, नभ अपार,
    सब पूछ रहे हैं दिग्-दिगंत,
    वीरों का कैसा हो वसंत?
    फूली सरसों ने दिया रंग,
    मधु लेकर आ पहुँचा अनंग,
    वधु-वसुधा पुलकित अंग-अंग,
    हैं वीर वेश में किंतु कंत,
    वीरों का कैसा हो वसंत?
    भर रही कोकिला इधर तान,
    मारू बाजे पर उधर गान,
    है रंग और रण का विधान,
    मिलने आये हैं आदि-अंत,
    वीरों का कैसा हो वसंत?
    गलबाँहें हों, या हो कृपाण,
    चल-चितवन हो, या धनुष-बाण,
    हो रस-विलास या दलित-त्राण,
    अब यही समस्या है दुरंत,
    वीरों का कैसा हो वसंत?
    कह दे अतीत अब मौन त्याग,
    लंके, तुझमें क्यों लगी आग?
    ऐ कुरुक्षेत्र! अब जाग, जाग,
    बतला अपने अनुभव अनंत,
    वीरों का कैसा हो वसंत?
    हल्दी-घाटी के शिला-खंड,
    ऐ दुर्ग! सिंह-गढ़ के प्रचंड,
    राणा-ताना का कर घमंड,
    दो जगा आज स्मृतियाँ ज्वलंत,
    वीरों का कैसा हो वसंत?
    भूषण अथवा कवि चंद नहीं,
    बिजली भर दे वह छंद नहीं,
    है क़लम बँधी, स्वच्छंद नहीं,
    फिर हमें बतावे कौन? हंत!
    वीरों का कैसा हो वसंत?

    शहीदों की चिताओं पर

    जगदंबा प्रसाद मिश्र ‘हितैषी

    उरूजे कामयाबी पर कभी हिंदोस्ताँ होगा।
    रिहा सैयाद के हाथों से अपना आशियाँ होगा॥
    चखाएँगे मज़ा बर्बादी-ए-गुलशन का गुलचीं को।
    बहार आ जाएगी उस दम जब अपना बाग़बाँ होगा।
    ये आए दिन की छेड़ अच्छी नहीं ऐ ख़ंजर-ए-क़ातिल।
    पता कब फ़ैसला उनके हमारे दरमियाँ होगा॥
    जुदा मत हो मेरे पहलू से ऐ दर्दे वतन हरगिज़।
    न जाने बाद मुर्दन मैं कहाँ औ तू कहाँ होगा॥
    वतन के आबरू का पास देखें कौन करता है।
    सुना है आज मक़तल में हमारा इम्तहाँ होगा॥
    शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले।
    वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशाँ होगा॥
    कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे।
    जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमाँ होगा॥

    आज देश की मिट्टी बोल उठी है

    शिवमंगल सिंह सुमन

    लौह-पदाघातों से मर्दित
    हय-गज-तोप-टैंक से खौंदी
    रक्तधार से सिंचित पंकिल
    युगों-युगों से कुचली रौंदी।
    व्याकुल वसुंधरा की काया
    नव-निर्माण नयन में छाया।
    कण-कण सिहर उठे
    अणु-अणु ने सहस्राक्ष अंबर को ताका
    शेषनाग फूत्कार उठे
    साँसों से निःसृत अग्नि-शलाका।
    धुआँधार नभी का वक्षस्थल
    उठे बवंडर, आँधी आई,
    पदमर्दिता रेणु अकुलाकर
    छाती पर, मस्तक पर छाई।
    हिले चरण, मतिहरण
    आततायी का अंतर थर-थर काँपा
    भूसुत जगे तीन डग में ।
    बावन ने तीन लोक फिर नापा।
    धरा गर्विता हुई सिंधु की छाती डोल उठी है।
    आज देश की मिट्टी बोल उठी है।
    आज विदेशी बहेलिए को
    उपवन ने ललकारा
    कातर-कंठ क्रौंचिनी चीख़ी
    कहाँ गया हत्यारा?
    कण-कण में विद्रोह जग पड़ा
    शांति क्रांति बन बैठी,
    अंकुर-अंकुर शीश उठाए
    डाल-डाल तन बैठी।
    कोकिल कुहुक उठी
    चातक की चाह आग सुलगाए
    शांति-स्नेह-सुख-हंता
    दंभी पामर भाग न जाए।
    संध्या-स्नेह-सँयोग-सुनहला
    चिर वियोग सा छूटा
    युग-तमसा-तट खड़े
    मूक कवि का पहला स्वर फूटा।
    ठहर आततायी, हिंसक पशु
    रक्त पिपासु प्रवंचक
    हरे भरे वन के दावानल
    क्रूर कुटिल विध्वंसक।
    देख न सका सृष्टि शोभा वर
    सुख-समतामय जीवन
    ठट्ठा मार हँस रहा बर्बर
    सुन जगती का क्रंदन।
    घृणित लुटेरे, शोषक
    समझा पर धन-हरण बपौती
    तिनका-तिनका खड़ा दे रहा
    तुझको खुली चुनौती।
    जर्जर-कंकालों पर वैभव
    का प्रासाद बसाया
    भूखे मुख से कौर छीनते
    तू न तनिक शरमाया।
    तेरे कारण मिटी मनुजता
    माँग-माँग कर रोटी
    नोची श्वान-शृगालों ने
    जीवित मानव की बोटी।
    तेरे कारण मरघट-सा
    जल उठा हमारा नंदन,
    लाखों लाल अनाथ
    लुटा अबलाओं का सुहाग-धन।
    झूठों का साम्राज्य बस गया
    रहे न न्यायी सच्चे,
    तेरे कारण बूँद-बूँद को
    तरस मर गए बच्चे।
    लुटा पितृ-वात्सल्य
    मिट गया माता का मातापन
    मृत्यु सुखद बन गई
    विष बना जीवन का भी जीवन।
    तुझे देखना तक हराम है
    छाया तलक अखरती
    तेरे कारण रही न
    रहने लायक सुंदर धरती
    रक्तपात करता तू
    धिक्-धिक् अमृत पीनेवालो,
    फिर भी तू जीता है
    धिक्-धिक् जग के जीनेवालो!
    देखें कल दुनिया में
    तेरी होगी कहाँ निशानी?
    जा तुझको न डूब मरने
    को भी चुल्लू भर पानी।
    शाप न देंगे हम
    बदला लेने को आन हमारी
    बहुत सुनाई तूने अपनी
    आज हमारी बारी।
    आज ख़ून के लिए ख़ून
    गोली का उत्तर गोली
    हस्ती चाहे मिटे,
    न बदलेगी बेबस की बोली।
    तोप-टैंक-एटमबम
    सबकुछ हमने सुना-गुना था
    यह न भूल मानव की
    हड्डी से ही वज्र बना था।
    कौन कह रहा हमको हिंसक
    आपत् धर्म हमारा,
    भूखों नंगों को न सिखाओ
    शांति-शांति का नारा।
    कायर की सी मौत जगत में
    सबसे गर्हित हिंसा
    जीने का अधिकार जगत में
    सबसे बड़ी अहिंसा।
    प्राण-प्राण में आज रक्त की सरिता खौल उठी है।
    आज देश की मिट्टी बोल उठी है।
    इस मिट्टी के गीत सुनाना
    कवि का धन सर्वोत्तम
    अब जनता जनार्दन ही है
    मर्यादा-पुरुषोत्तम।
    यह वह मिट्टी जिससे उपजे
    ब्रह्मा, विष्णु, भवानी
    यह वह मिट्टी जिसे
    रमाए फिरते शिव वरदानी।
    खाते रहे कन्हैया
    घर-घर गीत सुनाते नारद,
    इस मिट्टी को चूम चुके हैं
    ईसा और मुहम्मद।
    व्यास, अरस्तू, शंकर
    अफ़लातून के बँधी न बाँधी
    बार-बार ललचाए
    इसके लिए बुद्ध औ' गाँधी।
    यह वह मिट्टी जिसके रस से
    जीवन पलता आया,
    जिसके बल पर आदिम युग से
    मानव चलता आया।
    यह तेरी सभ्यता संस्कृति
    इस पर ही अवलंबित
    युगों-युगों के चरणचिह्न
    इसकी छाती पर अंकित।
    रूपगर्विता यौवन-निधियाँ
    इन्हीं कणों से निखरी
    पिता पितामह की पदरज भी
    इन्हीं कणों में बिखरी।
    लोहा-ताँबा चाँदी-सोना
    प्लैटिनम् पूरित अंतर
    छिपे गर्भ में जाने कितने
    माणिक, लाल, जवाहर।
    मुक्ति इसी की मधुर कल्पना
    दर्शन नव मूल्यांकन
    इसके कण-कण में उलझे हैं
    जन्म-मरण के बंधन।
    रोई तो पल्लव-पल्लव पर
    बिखरे हिम के दाने,
    विहँस उठी तो फूल खिले
    अलि गाने लगे तराने।
    लहर उमंग हृदय की, आशा—
    अंकुर, मधुस्मित कलियाँ
    नयन-ज्योति की प्रतिछवि
    बनकर बिखरी तारावलियाँ।
    रोमपुलक वनराजि, भावव्यंजन
    कल-कल ध्वनि निर्झर
    घन उच्छ्वास, श्वास झंझा
    नव-अंग-उभार गिरि-शिखर।
    सिंधु चरण धोकर कृतार्थ
    अंचल थामे छिति-अंबर,
    चंद्र-सूर्य उपकृत निशिदिन
    कर किरणों से छू-छूकर।
    अंतस्ताप तरल लावा
    करवट भूचाल भयंकर
    अंगड़ाई कलपांत
    प्रणय-प्रतिद्वंद्व प्रथम मन्वंतर।
    किस उपवन में उगे न अंकुर
    कली नहीं मुसकाई
    अंतिम शांति इसी की
    गोदी में मिलती है भाई।
    सृष्टिधारिणी माँ वसुंधरे
    योग-समाधि अखंडित,
    काया हुई पवित्र न किसकी
    चरण-धूलि से मंडित।
    चिर-सहिष्णु, कितने कुलिशों को
    व्यर्थ नहीं कर डाला
    जेठ-दुपहरी की लू झेली
    माघ-पूस का पाला।
    भूखी-भूखी स्वयं
    शस्य-श्यामला बनी प्रतिमाला,
    तन का स्नेह निचोड़
    अँधेरे घर में किया उजाला।
    सब पर स्नेह समान
    दुलार भरे अंचल की छाया
    इसीलिए, जिससे बच्चों की
    व्यर्थ न कलपे काया।
    किंतु कपूतों ने सब सपने
    नष्ट-भ्रष्ट कर डाले,
    स्वर्ग नर्क बन गया
    पड़ गए जीने के भी लाले।
    भिगो-भिगो नख-दंत रक्त में
    लोहित रेखा रचा दी,
    चाँदी की टुकड़ों की ख़ातिर
    लूट-खसोट मचा दी।
    कुत्सित स्वार्थ, जघन्य वितृष्णा
    फैली घर-घर बरबस,
    उत्तम कुल पुलस्त्य का था
    पर स्वयं बन गए राक्षस।
    प्रभुता के मद में मदमाते
    पशुता के अभिमानी
    बलात्कार धरती की बेटी से
    करने की ठानी।
    धरती का अभिमान जग पड़ा
    जगा मानवी गौरव,
    जिस ज्वाला में भस्म हो गया
    घृणित दानवी रौरव।
    आज छिड़ा फिर मानव-दानव में
    संघर्ष पुरातन
    उधर खड़े शोषण के दंभी
    इधर सर्वहारागण।
    पथ मंज़िल की ओर बढ़ रहा
    मिट-मिट नूतन बनता
    त्रेता बानर भालु,
    जगी अब देश-देश की जनता।
    पार हो चुकी थीं सीमाएँ
    शेष न था कुछ सहना,
    साथ जगी मिट्टी की महिमा
    मिट्टी का क्या कहना?
    धूल उड़ेगी, उभरेगी ही
    जितना दाबो-पाटो,
    यह धरती की फ़सल
    उगेगी जितना काटो-छाँटो।
    नव-जीवन के लिए व्यग्र
    तन-मन-यौवन जलता है
    हृदय-हृदय में, श्वास-श्वास में
    बल है, व्याकुलता है।
    वैदिक अग्नि प्रज्वलित पल में
    रक्त मांस की बलि अंजुलि में
    पूर्णाहुति-हित उत्सुक होता
    अब कैसा किससे समझौता?
    बलिवेदी पर विह्वल-जनता जीवन तौल उठी है
    आज देश की मिट्टी बोल उठी है।

    क़दम क़दम बढ़ाए जा

    वंशीधर शुक्ल

    क़दम क़दम बढ़ाए जा
    ख़ुशी के गीत गाए जा;
    ये ज़िंदगी है क़ौम की,
    तू क़ौम पे लुटाए जा।
    उड़ी तमिस्र रात है, जगा नया प्रभात है,
    चली नई जमात है, मानो कोई बरात है,
    समय है, मुस्कुराए जा,
    ख़ुशी के गीत गाए जा।
    ये ज़िंदगी है क़ौम की
    तू क़ौम पे लुटाए जा।
    जो आ पड़े कोई विपत्ति मार के भगाएँगे,
    जो आए मौत सामने तो दाँत तोड़ लाएँगे,
    बहार की बहार में
    बहार ही लुटाए जा।
    क़दम क़दम बढ़ाए जा,
    ख़ुशी के गीत गाए जा।
    जहाँ तलक न लक्ष्य पूर्ण हो समर करेंगे हम,
    खड़ा हो शत्रु सामने तो शीश पै चढ़ेंगे हम,
    विजय हमारे हाथ है
    विजय-ध्वजा उड़ाए जा।
    क़दम क़दम बढ़ाए जा,
    ख़ुशी के गीत गाए जा।
    क़दम बढ़े तो बढ़ चले, आकाश तक चढ़ेंगे हम,
    लड़े हैं, लड़ रहे हैं, तो जहान से लड़ेंगे हम;
    बड़ी लड़ाइयाँ हैं तो
    बड़ा क़दम बढ़ाए जा।
    क़दम क़दम बढ़ाए जा
    ख़ुशी के गीत गाए जा।
    निगाह चौमुखी रहे, विचार लक्ष्य पर रहे,
    जिधर से शत्रु आ रहा उसी तरफ़ नज़र रहे,
    स्वतंत्रता का युद्ध है,
    स्वतंत्र होके गाए जा।
    क़दम क़दम बढ़ाए जा,
    ख़ुशी के गीत गाए जा।
    ये ज़िंदगी है क़ौम की
    तू क़ौम पे लुटाए जा।

    जेल में आती तुम्हारी याद

    शिवमंगल सिंह सुमन

    प्यार जो तुमने सिखाया
    वह यहाँ पर बाँध लाया
    प्रीति के बंदी नहीं करते कभी फ़रियाद
    जेल में आती तुम्हारी याद।
    बात पर अपनी अड़ा हूँ
    सींकचे पकड़े खड़ा हूँ
    सकपकाया-सा खड़ा है सामने सय्याद
    जेल में आती तुम्हारी याद।
    विश्व मुझ पर आँख गाड़े
    मैं खड़ा छाती उघाड़े
    देख जिसको तेग़ कुंठित, कँप रहा जल्लाद
    जेल में आती तुम्हारी याद।
    दृढ़ दीवालें फोड़ दूँगा
    लौह कड़ियाँ तोड़ दूँगा
    कर नहीं सकतीं मुझे ये बेड़ियाँ बर्बाद
    जेल में आती तुम्हारी याद।
    सुमन उपवन में खिलेंगे
    और फिर हम तुम मिलेंगे
    किंतु जब हो जाएगा हिंदोस्ताँ आज़ाद
    जेल में आती तुम्हारी याद।

    सन् 1857 की जनक्रांति

    गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही

    जब विदेशियों का भारत में, धीरे-धीरे अधिकार हुआ।
    बन गया प्रजा के लिए नरक, सूना सुख का संसार हुआ॥
    जनता का रक्त चूसने को, व्यवसाय हुआ, व्यापार हुआ।
    थे दुखद दासता के बंधन, उस पर यह अत्याचार हुआ॥
    छिन गया शिल्प शिल्पीगण का, छिन तख़्त गये, छिन ताज गये।
    शाहों की शाही छिनी और राजाओं के भी राज गये॥
    जो थे लक्ष्मी के लाल वही, दानों के हो मुहताज गये।
    नौकर यमदूत कंपनी के बन और कोढ़ में खाज गये॥
    तब धूँ-धूँ करके धधक उठीं, जनता की अंतर-ज्वालाएँ।
    वीरों की कहें कहानी क्या, आगे बढ़ आयीं बालाएँ॥
    आँखों में ख़ून उतर आया, तलवारें म्यानों से निकलीं।
    टोलियाँ जवानों की बाहर, खेतों-खलिहानों से निकलीं॥
    सम्राट बहादुरशाह ‘ज़फ़र', फिर आशाओं के केंद्र बने।
    सेनानी निकले गाँव-गाँव, सरदार अनेक नरेंद्र बने॥
    लोहा इस भाँति लिया सबने, रंग फीका हुआ फिरंगी का।
    हिंदू-मुस्लिम हो गये एक, रह गया न नाम दुरंगी का॥
    अपमानित सैनिक मेरठ के, फिर स्वाभिमान से भड़क उठे।
    घनघोर बादलों-से गरजे, बिजली बन-बनकर कड़क उठे॥
    हर तरफ़ क्रांति ज्वाला दहकी, हर ओर शोर था ज़ोरों का।
    'पुतला बचने पाये न कहीं पर भारत में अब गोरों का॥'
    आगरा-अवध के वीर बढ़े आगे बंगाल बिहार बढ़ा।
    जो था सपूत, वह आज़ादी की करता हुआ पुकार बढ़ा॥
    हाँ, हृदय देश का मध्य हिंद रण-मदोन्मत्त हुंकार बढ़ा।
    झाँसी की रानी बढ़ी और नाना लेकर तलवार बढ़ा॥
    कितने ही राजों नव्वाबों ने, कसी कमर प्रस्थान किया।
    हम बलिवेदी की ओर बढ़े, इसमें अनुभव अभिमान किया॥
    आसन परदेशी सत्ता का पीपल-पत्ता-सा डोल उठा।
    उत्साहित होकर भारतीय 'भारत माँ की जय' बोल उठा॥
    दुर्दैव, किंतु कुछ भारतीय, बन आये बेंट कुल्हाड़ी के।
    पीछे खींचने लगे छकड़ा गरियार बैल ज्यों गाड़ी के॥
    धन-लाभ किसी को हुआ और कुछ आये पद के झाँसे में।
    देश-द्रोही बन गये, फँसे, जो मोह-लाभ के लासे में॥
    बलिदान व्यर्थ कर दिए और पहनाया तौक ग़ुलामी का।
    यह मिला नतीजा हमें बुरा अपनी-अपनी ही ख़ामी का॥
    दब गई क्रांति की ज्वालाएँ, भारत अधिकांश उजाड़ हुआ।
    गोरों के अत्याचारों से जीवन भी एक पहाड़ हुआ॥
    यह कहीं दमन-दावानल से, उपचार क्रांति का होता है।
    रह-रहकर उबल-उबल पड़ता, यह ऐसा अद्भुत सोता है॥
    फिर भड़के जहाँ-तहाँ, जब-तब जल उठे क्रांति के अंगारे।
    आज़ादी की बलिवेदी पर, बलि हुए देश-लोचन सारे॥
    बीसवीं सदी के आते ही, फिर उमड़ा जोश जवानों में।
    हड़कंप मच गया नए सिरे से, फिर शोषक शैतानों में॥
    सौ बरस भी नहीं बीते थे सन् बयालीस पावन आया।
    लोगों ने समझा नया जन्म लेकर सन् सत्तावन आया॥
    आज़ादी की मच गई धूम फिर शोर हुआ आज़ादी का।
    फिर जाग उठा यह सुप्त देश चालीस कोटि आबादी का॥
    लाखों बलिदान ले चुकी है आज़ादी आनेवाली है।
    अब देर नहीं रह गयी तनिक काली का खप्पर ख़ाली है॥
    पीछे है सृजन, 'त्रिशूल' हाथ में लेता प्रथम कपाली है।
    है अंत भला सो हाथ आज आई अपने ही पाली है॥


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